Friday 15 July 2022

Extara Antara

 

आये दिन बहार के (१९६६)

फूलों से मुखड़े वाली निकली है मतवाली

गुलशन की करने सैर, खुदाया खैर

ले थाम ले मेरी बाहें ऊंची नीची हैं रहे

कहीं फिसल न जाए पेर खुदाया खैर 

क्या हाल बहारों का होगा , क्या रंग नज़ारों का होगा

यह हुस्न अगर मुस्काया तो ,क्या इश्क़ के मारों का होगा

मतवाले नैन हैं ऐसे , तालाब में यारों जैसे दो फूल रहे हों तैर

खुदाया खैर……..

हर एक अदा मस्तानी है , यह अपने वक़्त की रानी है

जो पहली बार सुनी मैंने , यह वो रंगीन कहानी है

मौजों की तरह चलती है, शबनम से यह जलती  है, कलियों से भी है बैर

खुदाया खैर  …..

यह होंठ नहीं अफ़साने हैं अफ़साने क्या मैख़ाने हैं

न जाने किस की किस्मत में यह प्यार भरे पैमाने हैं

इन होंठों का मस्ताना , इन ज़ुल्फ़ों का दीवाना, बन जाये न कोई गैर

खुदाया खैर……

फूलों से मुखड़े वाली निकली है मतवाली

गुलशन की करने सैर, खुदाया खैर

कहीं फिसल न जाए पेर खुदाया खैर

खुदाया खैर……

गायक : मोहम्मद रफ़ी

संगीतकार : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल

गीतकार : आनद बक्शी

 

 

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